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चलिए संगीत की परिभाषा, इतिहास, महत्व और संगीत के तत्व की समस्त जानकारी पढ़ना शुरू करते हैं।
संगीत किसे कहते हैं
गायन, वादन तथा नृत्य इन तीनों कलाओ के योग को संगीत कहते हैं।
आरोह : स्वरों के चढ़ते हुए क्रम को आरोह कहते हैं।
जैसे :- सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सा।
अवरोह : स्वरों के उतरते हुए क्रम को अवरोह कहते हैं।
जैसे :- सा, नी, ध, प, म, ग, रे, सा ।
भारतीय संगीत का इतिहास
प्राचीन काल में चारों वेदों की रचना हुई। वेदों में सामवेद में संगीत का जिक्र है। महाभारत में सप्त स्वरों और गंधार ग्राम का उल्लेख है।
भरत कृत नाट्य शास्त्र संगीत की महत्वपूर्ण पुस्तक है। विद्वानों द्वारा इसका समय 5वी शताब्दी माना जाता है। इसके 6 अध्यायों में संगीत संबंधी विषयों में प्रकाश डाला गया है।
इसकी बताई हुई बातें आज भी लगभग 1500 वर्षो के बाद भी प्रचार में है और उन्हें शास्त्रीय संगीत का आधार माना जाता है।
संगीत के इतिहास में सर्वप्रथम मतंग मुनि कृत बृहधेसी ग्रंथ में राग शब्द का प्रयोग किया गया है। और आज राग का कितना महत्व है यह किसी से छिपा नहीं है।
आधुनिक काल में भारत में फ्रांसीसी, डच, पुर्तगील, अंग्रेज आए। किंतु अंग्रेजी ने धीरे-धीरे भारत पर अपना आधिपत्य जमा लिया। 1900 शताब्दी के बाद अर्थात बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही संगीत का प्रचार और प्रसार होने लगा।
इसका मुख्य श्रेय पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर और भातखंडे जी को है। रेडियो सिनेमा द्वारा भी संगीत का काफी प्रचार हुआ। स्वतंत्रता के पश्चात संगीत के प्रचार में सरकार का बहुत बड़ा हाथ रहा।
सरकार ने संगीत नाटक अकादमी की स्थापना की जो अब तक संगीत की सेवा कर रही है। प्रति शनिवार को 9:30 बजे रात से 11:00 बजे रात तक भारत के प्रमुख संगीतज्ञो का प्रदर्शन होता है।
जनता की तरफ से कई स्थानों पर संगीत सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं। भारत के संपूर्ण हाई स्कूल इंटरमीडिएट तथा सभी कक्षाओं में संगीत एक वैकल्पिक विषय हो गया है।
संगीत के तत्व
- स्वर
- वाद्य
- सप्तक
- थाट
- राग
- पकड़
- लय
- ताल
संगीत निम्नलिखित तत्वों से मिलकर बनता हैं।
1. स्वर
22 श्रुतियों में से मुख्य बारह श्रुतीयो को स्वर कहते हैं। यह स्वर सप्तक के अंतर्गत थोड़ी दूर पर फैले हुए हैं।
इन स्वरों के नाम हैं – षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। व्यवहार की सरलता के लिए इन्हें क्रमशः सा, रे, ग, म, प, ध और नि कहा जाता हैं।
स्वरों के प्रकार
- शुद्ध स्वर
- विकृत स्वर
(i). शुद्ध स्वर :- बारह स्वरों में से सात मुख्य स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं।
दूसरे शब्दों में जब स्वर अपने निश्चित स्थान पर रहते हैं तो शुद्ध स्वर कहलाते हैं।
शुद्ध स्वर की संख्या सात होती हैं।
शुद्ध स्वर के नाम :- सा, रे, ग, म, प, ध और नी।
(ii). विकृत स्वर :- जो स्वर अपने निश्चित स्थान से थोड़ा उतर जाते हैं वह विकृत स्वर कहलाते हैं।
विकृत स्वर के दो प्रकार हैं।
- कोमल स्वर
- तीव्र स्वर
(a). कोमल स्वर :- जब को स्वर अपने निश्चित स्थान से नीचा होता है तो उसे कोमल स्वर कहते हैं।
जैसे :- रे, ग, ध, नि
(b). तीव्र स्वर :- जब को स्वर अपने निश्चित स्थान से ऊपर होता है तो उसे तीव्र स्वर कहते हैं।
जैसे :- म
स्वरों को एक और दृष्टिकोण से विभाजित किया गया है
(a). चल स्वर :- जो स्वर शुद्ध होने के साथ-साथ विकृत भी होते हैं चल स्वर कहलाते हैं।
जैसे :- रे, ग, म, ध और नि
(b). अचल स्वर :- जो स्वर हमेशा शुद्ध होते हैं कभी भी विकृत नहीं होते हैं वह अचल स्वर कहलाते हैं। क्योंकि यह अपने स्थान पर अडिग होते हैं। ना तो यह कोमल होते हैं और ना ही तीव्र होते हैं।
2. वाद्य
वाद्य के बिना गानविद्या का कोई महत्व नहीं है। आदि काल से भारत में विभिन्न प्रकार के वाद्यों का प्रयोग होता रहा हैं।
वाद्यों को मुख्य चार भागों में बांटा गया हैं।
- तत वाद्य
- सुषिर वाद्य
- अवनद्ध वाद्य
- धन वाद्य
(a). तत वाद्य :- जिन वाद्यों में तार द्वारा स्वर उत्पन्न होते हैं वह तत वाद्य कहलाते हैं।
जैसे :- सारंगी, सितार, तानपुरा इत्यादि। यह सभी वाद्य वीणा से उत्पन्न माने गए हैं।
(b). सुषिर वाद्य :- जिन वाद्यों में हवा से स्वर उत्पन्न होते हैं वह सुषिर वाद्य कहलाते हैं।
जैसे :- हरमोनियम, शहनाई, बांसुरी, शंख, बिगुल इत्यादि।
(c). अवनद्ध वाद्य :- जिन वाद्यों में चमड़ी से प्रहार करने से स्वर उत्पन्न होते हैं उसे अवनद्ध वाद्य कहते हैं।
जैसे :- तबला, ढोलक, डमरु, नगाड़ा इत्यादि। इन वाद्यों में अन्य वाद्यों के समान विभिन्न स्वर नहीं होते बल्कि एक स्वर उत्पन्न होते हैं।
(d). घनवाद्य :- जिन वाद्यों में स्वरों की स्थिरता काफी समय तक नहीं रहती है वह घनवाद्य कहलाते हैं।
जैसे :- मजीरा, झांझ, जलतरंग इत्यादि। इन वाद्यों का स्वरों का काम अच्छा नहीं होता हैं।
3. सप्तक
क्रमानुसार सात शुद्ध स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं।
सातों स्वरों के नाम :- सा, रे, ग, म, प, ध और नि है।
सा से जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं स्वरों की संख्या बढ़ती जाती है।
सप्तक के प्रकार
(a). मध्य सप्तक :- जिस सप्तक में हम अधिकतम गाते या बजाते हैं वह मध्य सप्तक कहलाता हैं।
इस सप्तक के स्वरों का उपयोग दूसरे सप्तक के स्वरों की अपेक्षा अधिक होता है। इसमें शुद्ध और विकृत स्वर कुल बारह होते हैं।
(b). मंद्र सप्तक :- मध्य सप्तक के पहले का सप्तक मंद्र सप्तक कहलाता है। यह सप्तक मध्य सप्तक से आधा होता हैं।
(c). तार सप्तक :- मध्य सप्तक के बाद का सप्तक तार सप्तक कहलाता है। यह सप्तक मध्य सप्तक के दुगुना होता हैं।
4. थाट
सप्तक के बारह स्वरों में से सात क्रमानुसार मुख्य स्वरो के समुदाय को थाट कहते हैं जिससे राग उत्पन्न होता हैं।
थाटो की संख्या
हिंदुस्तानी संगीत पद्धति में आजकल 10 थाट माने जाते हैं। इन थाटो से सभी राग उत्पन्न होते हैं।
जिसमें विलावल थाट, रवमाज थाट, काफी थाट, असावरी थाट, भेरव थाट, यमन थाट, पूर्वी थाट, तोड़ी थाट, भेरवी थाट, मरवा थाट हैं।
5. राग
कम से कम पांच और अधिक से अधिक सात स्वरों की वह सुंदर रचना जो कानों को अच्छी लगे राग कहलाती हैं।
जैसे :- भूपली राग, भैरव राग, यमन राग इत्यादि।
6. पकड़
वह छोटा से छोटा स्वर समुदाय जिससे किसी एक राग का बोध हो राग की पकड़ कहलाता हैं।
जैसे :- नी रे ग रे नि रे सा, प म ग रे नि रे सा, से यमन राग का बोध होता है अतः इसे यमन राग की पकड़ कहते हैं। प्रत्येक राग की पकड़ अलग-अलग होती है। गाते बजाते समय राग की पकड़ बार-बार प्रयोग की जाती हैं।
7. लय
संगीत में समान गति या चाल को लय कहते हैं। समय की केवल समान गति को भी लय कहते हैं।
जैसे :- हृदय की आवाज भी एक लय हैं।
लय के तीन प्रकार होते हैं।
- विलंबित
- मध्य
- द्वत लय
गाते बजाते या नाचते समय कोई ना कोई लय अवश्य रहती है। जब लय धीमी रहती है तो उसे विलंबित, जब साधारण रहती है तो मध्य और जब तेज रहती है तो उसे द्वत लय कहते हैं।
8. ताल
विभिन्न मात्राओं के विविध समूह को ताल कहते हैं।
जैसे :- झपताल, तीनताल, दादरा ताल, रूपक ताल, चौताल इत्यादि।
विभिन्न तालों की रचना गीत के प्रकारों के आधार पर हुई है। प्रत्येक ताल के कुछ निश्चित बोल होते हैं।
जैसे :- ना, धी, किट, तक आदि।
संगीत की पद्धति
भारत में मुख्य दो प्रकार का संगीत प्रचार में है जिन्हें संगीत पद्धति कहते हैं। इनके नाम उतरी अथवा हिंदुस्तानी संगीत पद्धति और दक्षिणी अथवा कर्नाटक संगीत पद्धति है।
1. उत्तरी संगीत पद्धति
इसको हिंदुस्तानी संगीत पद्धति भी कहते हैं। यह पद्धति उत्तरी हिंदुस्तान में बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, जम्मू कश्मीर तथा महाराष्ट्र में प्रचलित है।
2. दक्षिणी संगीत पद्धति
इसे कर्नाटक संगीत पद्धति भी कहते हैं। यह तमिलनाडु, मैसूर, आंध्रा आदि दक्षिण के प्रदेशों में प्रचलित है। यह दोनों पद्धतियां अलग होते हुए भी इनमें बहुत कुछ एक जैसे हैं।
संगीत का महत्व
संगीत का हमारे जीवन में निम्नलिखित लाभ और महत्व हैं।
1. सार्वभौमिक भाषा
हर देश की अपनी भाषा होती है। केवल एक ही भाषा है जिसे हम सभी समझ सकते हैं : संगीत की भाषा। संगीत क्या कह रहा है, इसे समझने के लिए हमें शब्दों की भी जरूरत नहीं है।
2. माहौल
संगीत माहौल बनाता है। आप जो कुछ भी कर रहे हैं उसके अनुभव को जोड़ता है। क्या आप संगीत के बिना पार्टी, संगीत के बिना खेल आयोजन या संगीत के बिना फिल्म की कल्पना कर सकते हैं? शायद नहीं।
3. संगीत एकजुट
लोगों को एक साथ लाने में संगीत बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चाहे वह त्यौहार हो, गानविद्या कार्यक्रम हो या क्लब लोग संगीत का आनंद लेने के लिए एक साथ आते हैं।
4. फोकस
यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि संगीत मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को बढ़ाता है। संगीत दिमाग को ईंधन देता है और इस तरह हमारी रचनात्मकता को बढ़ावा देता है।
अल्बर्ट आइंस्टीन, मोजार्ट और फ्रैंक लॉयड राइट जैसे महान दिमाग और विचारकों में कुछ समानता थी कि वह लगातार अपनी कल्पना और रचनात्मकता की खोज कर रहे थे।
5. भावनाएं
गान विद्या आपके मूड के लिए बहुत अच्छा काम कर सकता है। अगर आप खुश महसूस करना चाहते हैं, तो आप ऐसे गाने सुन सकते हैं जो खुश हों और जब आपने अपने जीवन में किसी को खोया है, तो उदास गीत सुनना सहायक होता है।
विज्ञान कहता है कि उदास गाने सुनना वास्तव में आपको खुश कर सकता है।
6. कल्पना
सुर आपकी कल्पना को प्रभावित करता है और यह स्पष्ट रूप से आपकी रचनात्मकता और स्वास्थ्य के लिए एक अच्छी बात हैं।
7. मेमोरी
संगीत आपकी याददाश्त के लिए अच्छा है। नर्सिंग होम में, बुजुर्गों को अपने अतीत की बातें याद रखने के लिए संगीत चिकित्सा का उपयोग किया जा रहा हैं।
8. आध्यात्मिक शक्तियां
वास्तव में कोई नहीं जानता कि संगीत कहाँ से आया है, लेकिन ऐसे कई सिद्धांत हैं जो सुझाव देते हैं कि संगीत मानव जाति के अस्तित्व से पहले का है।
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