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वीर रस की परिभाषा
वीर रस, नौ रसों में से एक प्रमुख रस है। जब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की अनुभूति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है।
युद्ध अथवा किसी कार्य को करने के लिए ह्रदय में जो उत्साह का भाव जागृत होता है उसे वीर रस कहते है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल वीर रस को चारणों की पारिवारिक सम्पत्ति मानते थे।
वीर रस के उदाहरण
1. बुन्देलों हर बोलो के मुह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
2. “बातन बातन बतबढ़ होइगै, औ बातन माँ बाढ़ी रार,
दुनहू दल मा हल्ला होइगा दुनहू खैंच लई तलवार।
पैदल के संग पैदल भिरिगे औ असवारन ते असवार,
खट-खट खट-खट टेगा बोलै, बोलै छपक-छपक तरवार॥
3. रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ जाने वे उनको स्वर्ग धीर ।
पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर॥
4. सौमित्रि से घननाद का रव अल्प भी न सहा गया।
निज शत्रु को देखे बिना, उनसे तनिक न रहा गया।।
रघुवीर से आदेश ले युद्धार्थ वे सजने लगे।
रणबाद्य भी निर्घोष करके धूम से बजने लगे।।
5. मैं सत्य कहता हूँ सखे ! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध को प्रसतुत सदा मानों मुझे ।।
6. हाथ गह्यो प्रभु को कमला, कहै नाथ कहाँ तुमने चितधारी।
तन्दुल खाई मुठि दुई दीन, कियो तुमने दुई लोक बिहारी।
खाय मुठी तिसरी अब नाथ, कहा निज वास की आस भिखारी।।
7. बुंदेले हर बोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।।
वीर रस के अवयव
स्थायी भाव – उत्साह
संचारी भाव – आवेग, गर्व, उग्रता, अमर्ष, असूया
आलम्बन – शत्रु व याचक
उद्दीपन – शत्रु का अहंकार, वीरों की हुंकार, दुखियों का दुःख, याचक की प्रशंसा
अनुभाव – अंग स्फुरण, रोंगटे खड़े हो जाना
हिन्दी साहित्य में वीर रस
- झाँसी की रानी (सुभद्रा कुमारी चौहान)
- वीरों का कैसा हो वसन्त (सुभद्रा कुमारी चौहान)
- राणा प्रताप की तलवार (श्यामनारायण पाण्डेय)
- गंगा की विदाई (माखनलाल चतुर्वेदी)
- सह जाओ आघात प्राण (त्रिलोचन)
- निर्भय (सुब्रह्मण्यम भारती)
- कर्मवीर (अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’)
- तेरे ही भुजान पर भूतल को भार (भूषण)
- इन्द्र जिमि जम्भ पर (भूषण)
- सुभाषचन्द्र (गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’)
- उठो धरा के अमर सपूतो (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)
- कलम आज उनकी जय बोल
वीर रस के प्रकार
आलम्बन भेद के आधार पर उत्साह चार प्रकार के होते हैं।
- युद्धवीर
- दानवीर
- धर्मवीर
- दयावीर
1. युद्धवीर – जब युद्ध के लिए उत्साह हो।
मानव समाज में अरुण पड़ा, जल जन्तु बीच हो वरुण पड़ा।
इस तरह भभकता राणा था, मानो सपोद्ध में गरुड़ पड़ा।।
2. दान वीर – जब दीनों को दान करने का उत्साह हो।
हाथ गह्यो प्रभु को कमला कहै नाथ कहाँ तुमने चित्त धारी।
तन्दुल खाय मुठी दुई दीन कियो तुमने दुइ लोक बिहारी ।।
खाय मुठी तिसरी अब नाथ कहा निज बास की आस बिसारी।
रंकहि आप समान कियो तुम चाहत आपहि होत भिखारी।।
3. धर्मवीर – जब धर्म प्रचार अथवा धर्म कार्य करने का उत्साह हो।
तीय सिरोमनि सीय तजी, जेहि पावक की कलुषाई दही है।
धर्म धुरन्धर बन्धु तज्यों, पुर लोगनि की बिधि बोल कही है।।
कीस, निसाचर की करनी न सुनी न विलोकति चित्त रही है।
राम सदा सरणागत की, अनखोही कनैसी सुभस सही है।।
4. दया वीर – जब दीनों पर दया करने का उत्साह हो।
गीधराज सुनि आरतवानी, रघुकुल तिलक नारि पहिचानी।
अधम निसाचर लीन्हें जाई, जिमि मलेच्छ बस कपिला गाई।।
सीते! पुत्रि करसि जनि नासा, करिहौं जातुधान कर नासा।
धावा क्रोधवन्त खग कैसे, छूटे पवि पर्वत मँह जैसे।।
FAQ
उत्तर :- जब कोई कार्य करने अथवा किसी रचना आदि के पढ़ने पर मन में जो उत्साह का भाव उत्पन्न होता है, उसे वीर रस कहते हैं।
उत्तर :- उत्साह
उत्तर :- बुन्देलों हर बोलो के मुह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
उत्तर :- शत्रु व याचक
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