इस पेज पर हम पारिस्थितिकी तंत्र की समस्त जानकारी पढ़ने वाले हैं तो पोस्ट को पूरा जरूर पढ़िए।
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चलिए आज पारिस्थितिकी तंत्र की अवधारणा, संरचना, विशेषताएं एवं कार्य की जानकारी को पढ़ते हैं।
पारिस्थितिक तंत्र किसे कहते हैं
जीवमंडल के जीवों का एक दूसरे से गहरा संबंध होता है। यह सभी घटक एक दूसरे के लिए संतुलन स्थापित करके जुड़े रहते हैं। किसी भी एक घटक के कम या अधिक हो जाने से संपूर्ण जीवमंडल में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
जीवमंडल की स्थिरता के लिए ऊर्जा और पदार्थ दोनों की आवश्यकता होती है। जीवमंडल के विभिन्न घटक तथा उसके बीच ऊर्जा और पदार्थ का आदान-प्रदान सभी एक साथ मिलकर पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करते हैं।
पारिस्थितिक तंत्र जीव मंडल की एक संरचनात्मक एवं कार्यात्मक इकाई होती है। यह ऊर्जा के लिए पूर्ण रूप से सूर्य पर निर्भर रहता है।
पारिस्थितिक तंत्र सामान्यता प्राकृतिक होते हैं। जैसे वन, समुंद्र, तालाब, झील आदि। परंतु मनुष्य के विभिन्न कार्य से कृत्रिम परिस्थितिक तंत्र भी बना सकते हैं।
जैसे :- भूमि, कृषि, पार्क, फुलवारी और क्वेरियन इत्यादि।
पारिस्थितिकी तंत्र का अध्ययन
अंग्रेजी भाषा का इकोलॉजी शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्द Oikos और Logos से मिलकर बना है। Oikos का अर्थ घर तथा Logos का अर्थ अध्ययन होता है। इस प्रकार जीवविज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत जीवो के वातावरण के साथ संबंधों अर्थात परिस्थितिकी तंत्र का अध्ययन किया जाता है, उसे परिस्थितिकी कहते हैं।
पारिस्थितिकी का इतिहास
पारिस्थितिकी शब्द का प्रयोग सबसे पहले सन 1868 में रिटर महोदय ने किया था, लेकिन इसको पूर्ण रूप से परिभाषित जर्मन जीव वैज्ञानिक आर्नेस्ट हैकल ने किया था।
आर्नेस्ट हैकल ने पारिस्थितिकी को परिभाषित करते हुए लिखा है कि जैविक तथा अजैविक वातावरण के साथ प्राणियों के अंत: संबंधों का पूर्णता अध्ययन ही परिस्थितिकी कहलाता है।
जबकि पारिस्थितिक तंत्र शब्द का प्रयोग सबसे पहले ए. जी. टांसले ने 1935 में किया था।
पारिस्थितिक तंत्र के घटक
एक परिस्थितिक तंत्र में निम्नलिखित दो मुख्य घटक होते हैं।
- जैविक घटक
- अजैविक घटक
1. जैविक घटक
जो जीवित है यानी जो सजीव है, उसे पारिस्थितिक तंत्र का जैविक घटक कहते हैं।
जैसे:- जंतु, पौधे, मानव एवं सूक्ष्मजीव।
जैविक घटक को निम्नलिखित तीन वर्गों में बांटा गया है।
- उत्पादक
- उपभोक्ता
- अपघटनकर्ता
(i). उत्पादक
हरे पौधे, जैसे शैवाल, घास, पेड़ इत्यादि एकमात्र जीव है जिनमें प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाने की क्षमता होती है।
एक पारिस्थितिक तंत्र में हरे पौधे की उपस्थिति आवश्यक है क्योंकि यह निम्नलिखित कार्य करते हैं।
- यह पारिस्थिति तंत्र में रहने वाले जीवो के प्रकार को निर्धारित करते हैं।
- हरे पौधे मिट्टी से प्रमुख तत्व को अवशोषित करते हैं।
- यह वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड के बीच संतुलन बनाए रखते हैं।
(ii). उपभोक्ता
ऐसे जीव जो अपने पोषण के लिए उत्पादक पर निर्भर रहते हैं, उन्हें उपभोक्ता कहते हैं। सभी जंतु उपभोक्ता की श्रेणी में आते हैं क्योंकि यह स्वयं अपना भोजन नहीं बनाते हैं।
उपभोक्ताओं को तीन भागों में बांटा जा सकता है।
(a). प्राथमिक उपभोक्ता :- वैसे उपभोक्ता जो पोषण के लिए हरे पौधों पर निर्भर रहते हैं, वह प्राथमिक उपभोक्ता कहलाते हैं।
जैसे:- गाय, भैंस, बकरी, हिरण, खरगोश इत्यादि। इन्हें शाकाहारी भी कहा जाता है।
(b). द्वितीयक उपभोक्ता :- कुछ जंतु जैसे शेर, बाघ, सांप, मेंढक मांसाहारी होते हैं तथा वह प्राथमिक उपभोक्ताओं को खाते हैं। ऐसे जंतु द्वितीयक उपभोक्ता कहलाते हैं।
(c). तृतीयक उपभोक्ता :- तृतीयक उपभोक्ता उच्चतम श्रेणी के उपभोक्ता होते हैं जो दूसरे जंतुओं द्वारा मारे और खाए नहीं जाते हैं।
जैसे:- बाघ, शेर, चीता, गिद्ध इत्यादि। जैसे सांप जब खरगोश को खाता है तब वह द्वितीयक उपभोक्ता होता है लेकिन वही सांप जब मेढक को खाता है, तब वह तृतीयक उपभोक्ता कहलाता है।
(iii) अपघटनकर्ता
पौधे और जंतुओं के मृत शरीर को कई जीवाणु और कवक खाते हैं। अतः जीवाणु और कवक अपघटनकर्ता कहलाते हैं।
2. अजैविक घटक
जिसमें जीवन नहीं है यानी जो निर्जीव है उसे पारिस्थितिकी तंत्र का अजैविक घटक कहते हैं।
अजैविक घटक को निम्नलिखित तीन भागों में रखा गया है।
(i). अकार्बनिक तत्व : ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, फॉस्फोरस, कैल्शियम इत्यादि।
(ii). कार्बनिक तत्व : प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, ह्यूमस इत्यादि।
(iii). जलवायु : प्रकाश, वर्षा, तापमान इत्यादि।
पारिस्थितिकी कारक
पर्यावरण कि वह कारक जो पेड़ पौधों तथा जीव जंतुओं को प्रभावित करते हैं, उन्हें पारिस्थितिकी कारक कहते हैं।
पारिस्थितिकी कारक दो प्रकार के होते हैं।
- अजैविक कारक
- जैविक कारक
(i). अजैविक कारक
इसके अंतर्गत वैसे पारिस्थितिकी कारक आते हैं जो निर्जीव होते हैं।
जैसे:- प्रकाश, तापमान, आर्द्रता, वायु, मिट्टी इत्यादि।
(ii). जैविक कारक
जैविक कारक भी जीवो को प्रभावित करते हैं यह एक स्थान के विभिन्न विधियों का दूसरे स्थान के जीवो से संबंध स्थापित करते हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार
परिस्थितिकी तंत्र मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं।
- जलीय परिस्थितिकी तंत्र
- थलीय पारिस्थितिकी तंत्र
(i). जलीय परिस्थितिकी तंत्र
पृथ्वी की सतह का 70% से भी अधिक क्षेत्र जलीय है। जल के अंदर का परिस्थितिकी तंत्र जलीय परिस्थितिकी तंत्र कहलाता है।
(ii). थलीय पारिस्थितिकी तंत्र
थल अर्थात भूमि पर स्थित परिस्थितिकी तंत्र को थलीय परिस्थितिकी तंत्र कहते हैं।
थलीय पारिस्थितिकी तंत्र को 7 भागों में बांटा गया है।
- टुंड्रा
- टैगा
- शीतोष्ण पर्णपाती वन
- उष्णकटिबंधीय वर्षा वन
- सवाना
- घास स्थल
- मरुस्थल
आहार श्रृंखला
एक पारिस्थितिक तंत्र में किसी एक जीव का समूह दूसरे जीवों के समूह को खाता है तथा अपने से ऊपर श्रेणी वाले जीवो द्वारा खाया जाता है।
दूसरे शब्दों में यदि हम हिरण के उदाहरण को लेकर समझे तो हिरण अपने से निचली श्रृंखला की जीव जैसे हरे पौधे को खाता है जबकि हिरण को उसके ऊपरी श्रृंखला वाले जीव बाघ द्वारा खाया जाता है। इसी श्रृंखला को आहार श्रृंखला कहा जाता है।
उदाहरण :-
1. घास – ग्रासहॉपर – मेंढक – सांप – गिद्ध
2. शैवाल – छोटे जंतु – छोटी मछली – बड़ी मछली
3. पौधे – कीड़े – चिड़िया – बिल्ली
4. घास – हिरण – बाघ
आहार जाल
पारिस्थितिक तंत्र में एक साथ कई आहार श्रृंखलाए पाई जाती है। यह आहार श्रृंखलाए हमेशा सीधी न होकर एक दूसरे से आड़े-तिरछे जोड़कर एक जाल सा बनाती है, आहार श्रृंखला के इस जाल को आहार जाल कहते हैं।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि परिस्थितिक तंत्र का एक उपभोक्ता एक से अधिक भोजन स्रोत का उपयोग करता है।
जैसे :- बाज पक्षी, घास खाने वाले कीटों को भी खा सकता है और साथ-साथ कीटों को खाने वाले मेढक या गिरगिट को भी खा सकता है।
उदाहरण :-
1. पौधे – ग्रासहॉपर – बाज
2. पौधे – ग्रासहॉपर – गिरगिट – बाज
3. पौधे – खरगोश – बाज
4. पौधे – चूहा – सांप – बाज
5. पौधे – चूहा – बाज
पोषी स्तर
आहार श्रृंखला में कई स्तर होते हैं तथा हर स्तर पर भोजन का स्थानांतरण होता है। श्रृंखला के इन्हीं स्तरों को पोषी स्तर कहते हैं।
आहार श्रृंखला के उत्पादक यानी हरे पौधे प्रथम पोषी स्तर कहलाते हैं। शाकाहारी जंतु द्वितीय पोषी स्तर कहलाते हैं। मांसाहारी जंतु तृतीय तथा उच्च श्रेणी वाले मांसाहारी जंतु चतुर्थ पोषी स्तर कहलाते हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र पर मानव का प्रभाव
मनुष्य पृथ्वी पर निवास करने वाले असंख्य जीवों में से एक है। वह पारिस्थितिकी तंत्र के अन्य जीवों से अधिक निपुण है। प्रकृति ने उसे विशेष बुद्धि दी है। मनुष्य अपने बुद्धि के आधार पर सर्वश्रेष्ठ प्राणी बन गया है। अतः वह पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन करने की क्षमता रखता है।
विज्ञान तथा तकनीक के विकास के साथ-साथ उसकी वनस्पति तथा पशुओं को प्रभावित करने की क्षमता बढ़ती जा रही है। औद्योगिक क्रांति के बाद से ही प्रकृति का दोहन बढ़ गया है। पृथ्वी पर मानव की जनसंख्या वृद्धि के कारण परिस्थितिकी पर भार बढ़ता जा रहा है। जिससे खाद्य श्रृंखला असंतुलित हो रहा है।
मनुष्य की गतिविधियों के कारण वातावरण से जुड़ी कई समस्याएं सामने आई हैं। जो निम्नलिखित हैं।
1. ओजोन छिद्र
समताप मंडल में पाया जाने वाले ओजोन परत को जीवन रक्षक कहा जाता है, क्योंकि यह सूर्य की पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करती है। अंटार्कटिका के ऊपर स्थित ओजोन परत में छिद्र हो गया है जिसका मुख्य कारण क्लोरीन है।
वैज्ञानिकों के अनुसार क्लोरीन का एक अणु ओजोन के 1 लाख अणुओं को तोड़ सकता है। रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर, प्लास्टिक आदि से क्लोरीन में वृद्धि हो रही है।
2. ग्लोबल वार्मिंग
औद्योगिक क्रांति के बाद विश्व स्तर पर ईंधनों के प्रयोग में वृद्धि हो रही है। जिससे कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, हाइड्रोफ्लोरोकार्बंस इत्यादि जैसे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि हो रही है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमक्षेत्र पिघलेंगे। जिसके परिणामस्वरूप समुद्र का जल स्तर 2.5 से 3 मीटर तक बढ़ जाएगा।
3. अम्लीय वर्षा
वायुमंडल में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, क्लोरिन व फ्लोरिन जैसे हैलोजन पदार्थों के मिलने से वर्षा में अम्लीयता की मात्रा बढ़ती जा रही है। वर्षा में सल्फ्यूरिक अम्ल, नाइट्रिक अम्ल, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल आदि के मिश्रण का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
अम्लीय वर्षा से सर्वाधिक ग्रस्त देश नार्वे है। संगमरमर के इमारतों पर भी अम्लीय वर्षा का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ताजमहल के उदाहरण में इसे आसानी से समझा जा सकता है।
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