उल्का पिण्ड किसे कहते हैं इसका निर्माण प्रकार, प्रभाव और उपयोग

नमस्कार दोस्तों, आज के इस आर्टिकल में हम आपको उल्का पिण्ड या केतु की जानकारी बताने वाले हैं यदि आप उल्का या केतु की जानकारी जानना चाहते हैं तो इस आर्टिकल को पूरा जरूर पढ़िए।

पिछले पेज पर हमने उपग्रह और चन्द्रमा की जानकारी शेयर की हैं तो उन आर्टिकल को भी पढ़े। चलिए आज हम उल्का पिण्डों की जानकारी को पढ़ते और समझते हैं।

उल्का पिण्ड या केतु क्या हैं

उल्कापिंड शब्द का अर्थ बाहरी अंतरिक्ष से पृथ्वी पर आता हुआ चट्टान का एक टुकड़ा है। उल्कापिंड किसी क्षुद्र ग्रह या धूमकेतु के एक भाग के रूप में ग्रहों पर गिरते हैं।

उल्का या केतु अंतरिक्ष में तीव्र गति से घूमते हुए अत्यंत सूक्ष्म ब्रह्मांडीय कण हैं। यह मुख्यतः धूल व गैस से निर्मित होते हैं।

अंतरिक्ष में यह ब्रह्मांडीय पिंड विभिन्न ब्रह्मांडीय प्रतिक्रियाओं द्वारा छोटे भागों में टूट जाते हैं। यह जब वायुमंडल में प्रवेश करते हैं तो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण तेजी से पृथ्वी की ओर आते हैं।

ulka pind

जब उल्कापिंड किसी ग्रह या उपग्रह के वातावरण से होकर गुजरता है, तो उसे कुछ कारकों का सामना करना पड़ता है जैसे दबाव, मौसम, घर्षण, गैसों के साथ रासायनिक संपर्क।

इन सभी के कारण यह गर्म होता है और ऊर्जा विकीर्ण करता है। वायुमंडल के साथ घर्षण द्वारा गर्म हो जाने पर यह प्रकाश की चमकीली धारी के रूप में दिखाई पड़ते हैं जो आकाश में क्षण भर के लिए दमकती है और लुप्त हो जाती है। इसे टूटता तारा भी कहा जाता है।

उल्कापिंडों का निर्माण

अंतरिक्ष में लगातार कई ब्रह्मांडीय प्रतिक्रियाएं और घटनाएं होती रहती हैं। उल्कापिंडों का बनना उनमें से एक है। उल्कापिंडों के स्रोत धूमकेतु, क्षुद्र ग्रह आदि हैं। यह ब्रह्मांडीय पिंड हमेशा अंतरिक्ष में घूमते रहते हैं।

भटकते समय यह अन्य ब्रह्मांडीय वस्तुओं से टकराते हैं और छोटे-छोटे भागों में टूट जाते हैं। यह वातावरण में कई प्रतिक्रियाओं का सामना करते हैं। यदि किसी ग्रह या उपग्रह की गुरुत्वाकर्षण ऊर्जा उल्कापिंड से अधिक होती है, तो वह उसकी सतह पर गिरते है।

उल्कापिंड की ऊंचाई

सामान्य रूप से उल्का परमाणु 95 किलोमीटर की ऊंचाई पर उल्का बन जाता है। उल्का बनने की सर्वोच्च ऊंचाई 130 किलोमीटर है।

पृथ्वी के धरातल से 80 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचते-पहुंचते लगभग सभी उल्का घर्षित होकर पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं।जब उल्का जलकर नष्ट न होकर एक पिण्ड के रूप में पृथ्वी पर आता है तो उसे उल्कापिंड या उल्काश्म कहते हैं।

अंतरिक्ष में 12-72 किलोमीटर/सेकंड की औसत गति से परवलयाकार (Parabolic) मार्ग में गतिशील उल्का को उल्का परमाणु कहा जाता है। 

जब कभी उल्कापिंड आकाश में खंडित होकर तीव्र आवाज करता है तब उसे बोलाइट कहते हैं। पृथ्वी की सतह पर मिलने वाला उल्का का अवशिष्ट गोला ग्लासी पदार्थ टेक्टाइट कहलाता है। 

उल्कापातीय क्रेटर

पृथ्वी के धरातल पर भारी उल्कापिंडो के गिरने से उल्कापातीय क्रेटर का निर्माण होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के अरीजोनों में विंसलो के पास बैरिंगर उल्कापातीय क्रेटर विश्व का सर्वाधिक प्रसिद्ध उल्कापातीय क्रेटर है।

भारत में महाराष्ट्र प्रांत के बुलढाना जिले की लोनार झील भी एक उल्कापातीय क्रेटर झील है जिसका व्यास 1.5 km तथा गहराई 100 मीटर है।

उल्कापिंडों के प्रकार

उल्कापिंडों की सामग्री के आधार पर, उन्हें तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है।

  1. Iron Meteroits
  2. Stony Meteroits
  3. Stony-Iron Meteroits

1. Iron Meteorite :- Iron Meteorite मुख्य रूप से लोहे, निकल और खनिजों से बने होते हैं इसमें थोड़ी मात्रा में कार्बाइड और सल्फाइड खनिज भी होते हैं।

2. Stony Meteorite :- Stony Meteorite सिलिकेट खनिजों से बने होते हैं। 

Stony Meteorites दो प्रकार के होते हैं – चोंड्राइट और एकॉन्ड्राइट। 

  • चोंड्राइट सौर मंडल के पुराने ब्रह्मांडीय पिंडों से बने होते हैं। 
  • Achondrites क्षुद्रग्रहों, चंद्रमा, मंगल, आदि की सामग्री से बने होते हैं। दोनों प्रकार की रचना अलग-अलग प्रकार की होती है। 

3. Stony-Iron Meteroits :- Stony-Iron Meteorites में कुछ मात्रा में लौह-निकल और सिलिकेट खनिज शामिल होते हैं। 

यह दो प्रकार का होता है – पैलेसाइट्स और मेसोसाइडराइट्स। पैलेसाइट्स में बड़े और सुंदर Olive Green क्रिस्टल होते हैं, जो मैग्नीशियम-लौह सिलिकेट से बने होते हैं।

उल्कापिंड के प्रभाव

छोटे आकार के उल्कापिंड ग्रह या उपग्रह पर किसी चीज को प्रभावित नहीं करते हैं। उल्कापिंडों का आकार बड़ा होने पर यह सतह पर छेद कर सकता है और गर्मी से अपने आस पास के वातावरण को भी प्रभावित कर सकता है।

उल्कापिंड के उपयोग

  • उल्कापिंडों में स्टारडस्ट होते हैं। स्टारडस्ट से हम तारों की संरचना और विकास के बारे में जान सकते हैं।
  • उल्कापिंडों की संरचना से, हम सौरमंडल की आयु और संरचना का अंदाजा लगा सकते हैं। साथ ही उल्कापिंड ग्रहों और उपग्रहों के भूवैज्ञानिक इतिहास, सौर मंडल के विकास, जीवन के इतिहास आदि के बारे में जानकारी देते हैं।

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